भारत जब आजाद हुआ तो 16 अगस्त 1947 की कैसी थी सुबह, जाने कैसा था भारत का नजारा

देश की आजादी को 76 साल पूरे हो गए। अर्थात् आजाद भारत में पैदा हुए लोग भी कम से कम 75 साल के हो चुके हैं। पर, आजादी की यह तारीख उन्हें बूढ़ा नहीं होने देती।
 

देश की आजादी को 76 साल पूरे हो गए। अर्थात् आजाद भारत में पैदा हुए लोग भी कम से कम 75 साल के हो चुके हैं। पर, आजादी की यह तारीख उन्हें बूढ़ा नहीं होने देती। जो जोश, जुनून, उत्साह 14 अगस्त से लेकर 15 अगस्त 1947 की शाम तक देश ने महसूस किया था, उसे बहुत आसानी से आज भी सुना और महसूस किया जाता है।

जैसे-जैसे 15 अगस्त करीब आता है, देश एक अलग ही जुनून में डूब जाता है। शायद यही देश के प्रति प्यार है। अपनी धरती का सम्मान है। आज के हालात देखकर अंदाजा लगाना बहुत आसान हो जाता है कि उस दिन देश और देश का दिल दिल्ली का क्या सीन रहा होगा।

ऐसा नहीं था कि देश में चारों ओर खुशियाँ छा गयी थीं। तकलीफें थीं। हिन्दू-मुस्लिम झगड़े थे। गरीबी थी। भुखमरी थी। आजादी की घोषणा के बावजूद देश के भीतर मौजूद तीन रियासतें हैदराबाद, भोपाल और कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं बने थे।

जम्मू-कश्मीर 26 अक्तूबर 1947 को तो भोपाल 1 जून 1949 को भारत का हिस्सा बना। हैदराबाद की कहानी तो जगजाहिर है कि कैसे तब के गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने निजाम को सेना भेजकर काबू में किया।

अलग ही उत्साह में डूबा था देश

बावजूद इसके देश एक अलग ही उत्साह में डूबा हुआ था। क्या बड़े, क्या बूढ़े और बच्चे सब खुली हवा में सांस लेने को, आजादी को खुद में जज़्ब करने को, एक-दूसरे से मिलकर खुशियाँ बाँट लेने को आमादा थे। दिल्ली में क्या इंडिया गेट, क्या लाल किया और कनाट प्लेस, तिल रखने की जगह नहीं थी।

साइकिल, बग्घी, बैलगाड़ी, रिक्शा, ताँगा, ट्रक, बस, ट्रेन पर सवार होकर लोग दिल्ली में प्रवेश कर रहे थे। छत और खिड़की तक पर लटके भारतीय दिल्ली की ओर आते देखे गए। क्या गाँव, क्या शहर, हर जगह यही माहौल था। हाथी-घोड़े पर भी सवार भारतीय देखे गए।

महिलाओं ने नई साड़ियाँ पहनीं तो नई पगड़ी पहने पुरुष दिल्ली में खुशियाँ मनाते देखे गए। किसी की गोद में तो किसी के कंधे पर बच्चे भी इस जश्न में शामिल थे। कई जगह लोगों ने बसों में टिकट खरीदने से मना कर दिया। तर्क यह था कि बस हमारी है, अंग्रेजों की नहीं। सबके लिए आजादी के अपने मतलब थे।

नारे लगा रहे थे देशवासी

तिरंगे की जो शान उस समय देखी गयी, आजादी की जो खुशी और आँखों में चमक उस समय देखी गयी, वह लाजवाब थी और आज तक कायम है। 14/15 की रात इंद्रदेव भी खुश थे। नेहरू जब संविधान सभा को संबोधित कर रहे थे, बाहर हजारों की संख्या में देशवासी नारे लगा रहे थे।

खुशी से नाच रहे थे, वन्देमातरम और जन गण मन की धुनों पर नाच रहे थे, तब इंद्रदेव भी खुशी से बरस रहे थे। पूरी रात जश्न सा माहौल था। इससे पहले अंग्रेज सैनिकों के बूट की आवाजें ही रात में सुनी जाती थीं। इसी रात जब नेहरू आज के राष्ट्रपति भवन से देश को संबोधित कर रहे थे।

तब आजादी के अगली पंक्ति के सिपाही महात्मा गांधी कोलकाता में हिन्दू-मुस्लिम दंगा शांत करवा रहे थे। इसके लिए वे एक जर्जर मकान में रुके। वे 14/15 अगस्त की रात पंडित नेहरू का भाषण भी नहीं सुने थे। 14 अगस्त की शाम को ही अंग्रेजी सरकार के झंडे धीरे-धीरे सरकारी दफ्तरों से उतर रहे थे।

ब्रिटिश सैनिक बैरकों में जा रहे थे। राजेन्द्र लाल हांडा अपनी किताब दिल्ली में दस वर्ष में 14 अगस्त की रात का वाकया दर्ज करते हैं। लिखते हैं-रात के दो बज रहे थे। नेहरू जी वायसरॉय को संविधान सभा से निकलकर वायसरॉय भवन जा रहे थे, भीड़ उनके पीछे चल पड़ी।

किसी की नहीं पता कि क्या हो रहा है। वे लार्ड माउण्टबेटन को लेकर लौटे तो भीड़ नारे लगा रही थी। हांडा के शब्दों में सब कुछ अपूर्व था-अपूर्व समारोह, अपूर्व दृश्य, अपूर्व देशभक्ति, अपूर्व जनसमूह और अपूर्व उत्साह।

बिस्मिल्लाह खान ने बजाई थी शहनाई

15 अगस्त की सुबह पंडित नेहरू के आग्रह पर जब उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने अपनी टीम के साथ शहनाई बजाकर आजाद भारत में सूरज की पहली किरण का स्वागत किया तो समझना मुश्किल हो रहा था कि कौन किसका स्वागत कर रहा है। अब कोई कोई अमीर नहीं, कोई गरीब नहीं, सब एक-दूसरे को साहब कहकर बुला रहे थे।

आजादी के खुशी के मौके पर कई फांसी माफ हुई। सजायाफ्ता कैदी छोड़ दिए गए। शिमला में लोग माल रोड पर दौड़ पड़े, जहां उन्हें जाने तक की इजाजत नहीं थी। उस दिन सुबह लाल किला से लेकर जमा मस्जिद, दिल्ली गेट, कश्मीरी गेट, इंडिया गेट तक जो भीड़ दिखी, उससे पहले तो सवाल ही नहीं था, आगे भी कम ही देखी गयी।

डोमनिक लैपियर और लैरी कॉलिन्स की किताब फ़्रीडम एट मिडनाइट, फिलिप टालबोट की किताब एन अमेरिका विटनेस टू इंडियाज पार्टीशन समेत आजादी के उन लम्हों को कई अन्य किताबों में भी सहेजा गया है। जिन्हें पढ़ते हुए कोई भी हिन्दुस्तानी गर्व से भर उठता है।

माथे पर चमक और सीना बरबस चौड़ा हो जाता है। अन्तिम वायस रॉय लॉर्ड माउण्टबेटन की बेटी पामेला ने भी इस मौके को अपने शब्दों में सहेजा, जो बाद में किताब के रूप में सामने आई।

जब गिर पड़ा था अंगरक्षक का घोड़ा

15 अगस्त की शाम इंडिया गेट पर तिरंगा लहराया जाना था। अंतिम वायसरॉय लॉर्ड माउण्टबेटन को भी आना था। 30 हजार की भीड़ का अंदाजा अफसरों ने लगाया था लेकिन वहाँ पाँच लाख से ऊपर लोग पहुँच गए। भीड़ के दबाव में माउण्टबेटन के अंगरक्षक का घोड़ा जमीन पर गिर पड़ा।

अफसर घबरा गए लेकिन तनिक देर बाद घोड़ा खुद ही उठ गया। भारत की आजादी केवल देश में ही नहीं मनाई जा रही थी। न्यूयार्क स्थित संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी आजाद भारत को स्वीकार करते हुए उसी दिन तिरंगा लहरा दिया। महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि उस दिन लाल किला पर झण्डा फहराया गया लेकिन राष्ट्रगान नहीं हुआ था।

हालाँकि राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत तब भी लोगों की जुबान पर था लेकिन इसे राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया गया साल 1950 में, तब से अब तक जब भी तिरंगा लहराया जाता है, हम राष्ट्रगान भी गर्वपूर्वक गाते आ रहे हैं

तब नहीं थी पैर रखने की जगह, अब संख्या तय

15 अगस्त 1947 को जहाँ लाल किले पर तिल रखने की जगह नहीं थी। वहीं अब सुरक्षा और व्यवस्थागत कारणों से इस दिव्य-भव्य समारोह में शामिल होने वाले अतिथियों की संख्या तय होती है। यद्यपि ये नियम हर साल बदल से जाते हैं।

इस साल के लिए देश भर से 18 सौ विशिष्ट अतिथि अपने जीवन साथी के साथ बुलाए गए हैं। इनमें वाइब्रेन्ट विलेज से जुड़े चार सौ किसान, किसान उत्पादक संगठनों से 250, पीएम किसान सम्मान निधि और पीएम कौशल विकास योजना से 50-50 लोग तथा सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट से जुड़े 50 श्रम योगी आमंत्रित किए गए हैं।

17 हजार ई-निमंत्रण कार्ड भी जारी किए गए हैं। इस तरह लगभग 25 हजार लोग लालकिले के इस समारोह में हिस्सा लेंगे। कोविड काल में यह संख्या पाँच हजार तक सीमित कर दी गयी थी।

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पीएम की सुरक्षा के मद्देनजर कई एहतियाती उपायों के चलते संख्या पर नियंत्रण करना पुलिस ने शुरू कर दिया। उसके पहले इस्तनी सख्त व्यवस्था नहीं थी तो बिना पास के लोग भी आ जाते थे। उन्हें बैठने की सुविधा भी मिल जाती थी।