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130KM की स्पीड से चलती हुई ट्रेन कैसे बदलती है अपनी पटरी, जाने किसके हाथों में रहता है इसका कंट्रोल

यात्रा के दौरान जब एक ट्रेन एक ट्रैक से दूसरे पर चलती है यात्रियों को इसका शायद ही कभी एहसास होता है। यह कार्य इतना सहज और बिना किसी रुकावट के होता है कि यात्री अक्सर इस प्रक्रिया के बारे में सोचकर भी हैरान रह जाते हैं।
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यात्रा के दौरान जब एक ट्रेन एक ट्रैक से दूसरे पर चलती है यात्रियों को इसका शायद ही कभी एहसास होता है। यह कार्य इतना सहज और बिना किसी रुकावट के होता है कि यात्री अक्सर इस प्रक्रिया के बारे में सोचकर भी हैरान रह जाते हैं। ट्रेन के ट्रैक बदलने की प्रक्रिया में विशेष तकनीकी उपकरणों का इस्तेमाल होता है जिसे आम भाषा में 'संधे' कहा जाता है।

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लोको पायलट की भूमिका

ट्रेन के ट्रैक बदलने में लोको पायलट की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लोको पायलट को अत्यधिक प्रशिक्षित किया जाता है ताकि वे ट्रेन को सुरक्षित रूप से और बिना किसी हानि के एक ट्रैक से दूसरे ट्रैक पर स्थानांतरित कर सकें। यह प्रक्रिया दो मुख्य स्विचों के माध्यम से की जाती है—एक बायां स्विच और एक दायां स्विच। इन स्विचों का संचालन बहुत ही सावधानीपूर्वक और कुशलता से किया जाता है।

ट्रैक पर लगे तकनीकी स्विच

जहां ट्रेन अपने ट्रैक को बदलती है, वहां दो मुख्य प्रकार के स्विच होते हैं—बायां और दायां। ये स्विच ट्रेन को बिना किसी रुकावट के एक ट्रैक से दूसरे ट्रैक पर जाने की अनुमति देते हैं। इससे ट्रेन यात्रा की निरंतरता बनी रहती है और यात्री सुरक्षित यात्रा का अनुभव करते हैं।

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स्टेशन मास्टर की भूमिका

जब ट्रेन किसी नए स्टेशन की ओर बढ़ रही होती है तो उस स्टेशन के मास्टर को पहले से ही इसकी सूचना दी जाती है। यह सूचना वहां के स्टेशन मास्टर से अगले स्टेशन मास्टर तक पहुँचती है। फिर अगले स्टेशन मास्टर यह सुनिश्चित करता है कि प्लेटफार्म और ट्रैक साफ हों जिससे ट्रेन बिना किसी रुकावट के आगे बढ़ सके।

संधे की सेटिंग और सिग्नल

ट्रेन जब नए स्टेशन पर पहुंचती है तो स्टेशन मास्टर द्वारा संधे को उस ट्रेन के अनुसार सेट किया जाता है। इस सेटिंग के बाद ट्रेन को हरा सिग्नल मिलता है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ट्रेन सुरक्षित रूप से अपने निर्धारित ट्रैक पर चल सकती है। यह प्रक्रिया न केवल ट्रेन की सुरक्षा सुनिश्चित करती है बल्कि यात्रियों को भी एक सरल और सुरक्षित यात्रा कराती है।