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भारत का एक ऐसा अनोखा गांव जिसके लोग भगवान की नही बल्कि भूतों को करते है पूजा, हर साल लगने वाले मेले में शामिल होते है सैंकड़ों लोग

बैसाख की पहली ही सुबह से भूत को वास्तविक रूप में देखने के लिए पश्चिम बंगाल के नादिया के फुलिया तालतला में लोगों का तांता लगना शुरू हो गया था. फुलिया तालतला यहां के शांतिपूर पुलिस थाने में पड़ता है.
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Ghost village
   

बैसाख की पहली ही सुबह से भूत को वास्तविक रूप में देखने के लिए पश्चिम बंगाल के नादिया के फुलिया तालतला में लोगों का तांता लगना शुरू हो गया था. फुलिया तालतला यहां के शांतिपूर पुलिस थाने में पड़ता है. इस गांव की ‘भूत पूजा’ को देखने के लिए आसपास के गांव के लोग भी पहुंचते हैं.

शांतिपूर, रानाघाट, हबीबपुर और फुलिया से काफ़ी लोग यहां आयोजित मेले में इकट्ठा होते हैं. स्थानीय सूत्रों के मुताबिक़, बंटवारे के दौरान 1950 और 1952 के बीच पूर्वी पाकिस्तान से यहां बहुत लोग आए और इस क्षेत्र में बस गए. यह ‘भूत पूजा’ बांगलादेश में भी मनाया जाता था.

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जब ये लोग अपना घर-बार छोड़कर बंटवारे के दौरान यहां आए, तो यहां भी ‘भूत पूजा’ का आयोजन करने लगे. पर सूत्रों का कहना है कि बांग्लादेश में अब भूत पूजा का उत्सव नहीं मनाया जाता है.Ghost Prayer

आम तौर पर यह भूत पूजा चैत्र मास के शुरू होने पर मनाया जाता है. संन्यासी लोग शिव के मंत्र का उच्चारण करते हुए परिक्रमा करते हैं. ‘भुक्त’ जिसमें चावल, दाल और दूसरे अनाज आदि शामिल होते हैं, अलग अलग जगहों से इकट्ठा किया जाता है और दिन के समाप्त होने के बाद एक जगह जमा होकर ये लोग इनसे भोजन पकाकर खाते हैं.

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हर साल गांव के लोग अपने हाथों से ‘मूर्ति’ बनाते हैं. इस मूर्ति का सिर और गर्दन नहीं होता पर शरीर के निचले हिस्से में आंख, नाक, मुंह आदि होते हैं. मूर्ति को ज़मीन पर स्थापित कर इसकी पूजा करते हैं. पूजा वर्ष के शुरुआत में की जाती है.

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स्थानीय सूत्रों के मुताबिक़, इस पूजा की शुरुआत पांचवीं सदी में यादव सन्यासी ने की. वर्ष के शुरू में, इस पूजा के लिए एक मेले का आयोजन किया जाता है. इस भूत पूजा को लेकर स्थानीय लोगों में बहुत ही गहमागहमी होती है.

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पर गांव के किसी भी व्यक्ति के पास इस सवाल का जवाब नहीं था कि यह पूजा क्यों शुरू हुई. स्थानीय लोगों ने बताया, ”इस पूजा को शुरू करने का वास्तविक कारण क्या था इस बारे में कोई कुछ भी नहीं जानता. पर ‘भूत पूजा’ को शिव की पूजा जैसा माना जाता है.

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इस अर्थ में, बांग्ला नववर्ष के शुरू में इस पूजा के आयोजन का मतलब है बुरे ख़यालों को त्यागकर नयी ऊर्जा के साथ नए कार्यों को अपनाना”. एक स्थानीय निवासी, नानी गोपाल बसाक का कहना था, ”यह पूजा यहां 55-60 वर्ष पहले शुरू हुआ.

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अपने बचपन के दिनों से मैं इस पूजा में ऐसी ही भीड़ देखता आया हूं. लोग यहां इस उम्मीद से आते हैं कि इस पूजा में भाग लेने से उनकी मनोकामनाएं पूरी होंगी. आज भी इस पूजा को लेकर लोगों में वही उत्साह बना हुआ है”.