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ट्रेन की पटरियों के चारों और पत्थरों को लगाने से क्या होते है फायदे, होशियार लोग भी नही जानते ये असली वजह

गिरगर्दन घाट का नाम सुना है? ये घाट है जहां लोग पैराशूट पहनकर सड़क पर चलते हैं। हम ऐसा नहीं कह रहे हैं। ऐसा रोडरोलर इंजीनियर अवॉर्ड अंशुमान बताता है। यह गिरगर्दन घाट ट्रेनों से होकर नहीं गुजरता।
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reason behind stones kept under railway tracks
   

गिरगर्दन घाट का नाम सुना है? ये घाट है जहां लोग पैराशूट पहनकर सड़क पर चलते हैं। हम ऐसा नहीं कह रहे हैं। ऐसा रोडरोलर इंजीनियर अवॉर्ड अंशुमान बताता है। यह गिरगर्दन घाट ट्रेनों से होकर नहीं गुजरता। फिर भी ट्रेनों को सुरक्षित रखने के लिए विशिष्ट प्रबंध किए जाते हैं। जिनमें से एक हैं ट्रेन ट्रैक के पत्थर, जो बस अलग-अलग ब्रैंड्स के मेल्स से आपके स्पैम फोल्डर की तरह पड़े रहते हैं।

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तुमने कभी सोचा है कि इनका आखिरी काम क्या है? और अगर ये महत्वपूर्ण हैं, तो मेट्रो और हाई स्पीड ट्रेनों पर क्यों नहीं देखा जा सकता? हमने एक छोटी सी रेलवे इंजीनियरिंग की किताब उठाई, ताकि इन सभी प्रश्नों के उत्तर पा सकें। फिर भी हमें कुछ खास समझ नहीं आया, इसलिए हमने सिविल इंजीनियर वीरेंद्र विक्रम की मदद से इसे पूरा समझने का प्रयास किया।

हमने समझा, अब आपको भी बता देंगे। रेलवे ट्रैक पर इन पत्थरों को टेक्निकल शब्दों में "बैलस्ट" कहा जाता है। भयानक नाम सुनकर घबराइए नहीं; इसे कॉटन कैंडी या "बुड्ढी के बाल" से तुलना की जा सकती है।

पानी के जहाजों को अपनी जगह पर रखने वाले मटेरियल को पहले "बैलस्ट" कहा जाता था। या फिर एक चीज को "बैलस्ट" भी कहते हैं क्योंकि वह भार उठाता है। "बैलस्ट" शब्द का इसी तरह का अर्थ निकाल सकते हैं।

अब दो प्रश्न उठते हैं

1. पटरियों पर ये क्यों हैं?
2. हाई स्पीड ट्रेन या मेट्रो ट्रैक्स इतने महत्वपूर्ण क्यों नहीं हैं?

लेकिन सवालों के जवाब जानने से पहले ट्रेन की पटरी को समझ लेना चाहिए। रेल की पटरी कई हिस्सों से बना है। जिनके लिए अलग-अलग विज्ञान हैं। पहले नीचे दिखाई देने वाली तस्वीर देखें, फिर सबके कार्यों की व्याख्या करें।

1. एक स्वतंत्र पटरी है, जिसे रेल कहते हैं। ये बहुत मजबूत स्टील से बनाए गए हैं। ताकि वे ट्रेन के वजन से न बदलें। विशेष आकार के कारण ट्रेन मुड़ते वक्त पटरी से नहीं उतरती।
2. दूसरा है स्लीपर, जो पटरियों के बीच का एक भाग है। लंबी यात्रा पर पसरकर सोने वाले स्लीपर बर्थ की तरह इसे मत समझो। वास्तव में, ये पटरी के बीच लगाए जाने वाले लकड़ी या कंक्रीट के ब्लॉक हैं। याद आया तो विज्ञान की पुस्तकों में एक प्रश्न उठता था कि ट्रेन की पटरियों के बीच लकड़ी के गट्ठे क्यों डाले जाते हैं। इसका कारण यह है कि गर्म होने पर स्टील या धातु फैलते हैं और ठंडी होने पर सिकुड़ते हैं। मौसम बदलने पर पटरियां भी फैल सकती हैं। ये स्लीपर लगाए जाते हैं ताकि पटरियों की दूरी बराबर रहे। आजकल, ये लकड़ी से बनाए जाते हैं।
3. फास्टनिंग पटरी और स्लीपर को जोड़ने वाली चीज को फास्टनिंग कहते हैं। आपने पटरियों पर जलेबी की तरह लोहे की संरचना देखी होगी। ऊपर लगे चित्र में उसका जुगाड़ दिखाया गया है, अगर आप नहीं जानते हैं।
4. इतनी देर से हम चर्चा कर रहे हैं, वही 'बैलस्ट' है। पत्थर का बिस्तर ट्रेन की पटरी पर। थोड़ा अधिक विस्तृत हो जाओ।

क्या ये पत्थर हैं?

जैसा कि हम जानते हैं, इन पत्थरों को "बैलस्ट" कहा जाता है। इसलिए, अपनी सुविधा के लिए हम भी इन्हें इस लेख में यही नाम देंगे। पहले, लकड़ी और सीमेंट के स्लीपर्स के लिए पत्थरों का साइज अलग होता था। और मेटल स्लीपर से अलग। लेकिन आजकल उनका फिक्स 50 मिमी या लगभग 2 इंच का है।

शानदार विवरणों का विचार किया जाता है। इसका एक और कारण यह है कि बड़े पत्थर सामूहिक तौर पर लचक नहीं देंगे। इसलिए एक साइज फिक्स किया गया है क्योंकि अधिक छोटे होते हैं और उल्टा होता है। पत्थर बराबर सेट होना चाहिए ताकि इंटरलॉकिंग सही से हो।

वैसे, "बैलस्ट" केवल पत्थर नहीं होते। इसमें कोयला, मोरम (moorum) और अन्य सामग्री भी शामिल हैं। कहीं-कहीं इसके लिए चिकने नदी के पत्थर भी प्रयोग किए जाते हैं। ये भी निम्नलिखित कारणों पर निर्भर कर सकते हैं,

कितने भी "बैलस्ट" हों, ये गुण होने चाहिए

1. भार उठाने की क्षमता होनी चाहिए।
2. टूटे-फूटें नहीं
3. पानी न सोखें
4. काफी समय तक चलने वाले हों
5. सस्ता और खर्चा कम हों।

अब बात 'बैलस्ट' की क्यों?

बता दें कि पटरी ट्रेन के बोझ से आगे पीछे खिसक सकती है, क्योंकि वे पूरी तरह से फिक्स नहीं हैं। इस चाल को कूदना कहते हैं। ये कई कारणों से हो सकता है, जिसकी व्याख्या करने के लिए कई अलग-अलग थ्योरी हैं। जैसे जब ट्रेन आगे की ओर चलती है, तो पटरी पर पीछे की ओर बल लगता है। न्यूटन का तीसरी तरह का नियम  (every action has an equal and opposite reaction). 

साथ ही, इन सबकी वजह से ट्रेन की पटरी कभी-कभी हिलती भी रहती है। साथ ही वे आगे या पीछे खिसकती रहती हैं। ऐसे परिस्थितियों में, ट्रेन की पटरी धंसती भी जाएगी अगर वह जमीन पर ही पड़ी रहती है। ये पत्थर पिक्चर में आते हैं और पटरियों को ठोस बेस देते हैं। अभी भी यही नहीं है। इसलिए ट्रैक स्लीपर अपनी जगह पर रहते हैं।

ये स्लीपर को ट्रेन चलाते समय भी सपोर्ट करते हैं। इसके अलावा, वे ट्रैक में पानी न जमा होने और पटरियों में जंग न लगने के लिए भी जिम्मेदार हैं। मतलब, ये कीचड़ को जमा नहीं होने देते और पानी के अंदर जाने को आसान बनाते हैं। ताकि संघर्ष से पटरी खराब न हो। 1991 में एक फिल्म आई ‘पत्थर के फूल’।

ये पत्थर भले बड़े कूल हों लेकिन फूलों से दूर हैं। यानी कि इनकी वजह से ट्रैक पर अनावश्यक झाड़ नहीं उगते, जो ट्रैक को खराब कर सकते हैं। अगर ये पत्थर इतने अद्भुत हैं तो मेट्रो और हाई स्पीड ट्रेनों में इन पत्थरों को क्यों नहीं देखा जाता?

हाइ स्पीड ट्रैक्स में ये पत्थर क्यों नहीं मिलते?

आपने एक बात नोटिस की होगी कि मेट्रो और हाई स्पीड ट्रेनों पर ये पत्थर कम देखने मिलते हैं। लेकिन क्यों? "3 इडियट्स" फिल्म में रैंचो प्रोफेसर, "वायरस" से पूछता है कि स्पेस में पेंसिल क्यों नहीं इस्तेमाल करना चाहिए, लाखों डॉलर बच जाते हैं। प्रोफेसर कहता है कि किसी की आंख में पेंसिल की नोक टूट सकती है।

काश इसका भी इतना सरल जवाब होता। यह भी एक कारण है कि ट्रेन की रफ्तार तेज होने से पत्थर उछल सकते हैं, जो ट्रेन या लोगों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। लेकिन मेंटेनेंस का पेंच इतनी बड़ी वजह नहीं है। पूरा खेल है रोकड़े और आवश्यकता।

दरअसल, पटरी में पत्थर धीरे-धीरे बिखरते हैं। इसलिए नियमित मरम्मत और देखभाल की आवश्यकता होती है। मरम्मत करने में आम तौर पर कई घंटे लग सकते हैं। और तब तक ट्रैक बंद रखना होगा। यही कारण है कि मेट्रो वगैरह में समय खर्च होता है। यहाँ ट्रैक को अगले दिन बंद करके मरम्मत करना सही नहीं है।

इसलिए पत्थरों का इस्तेमाल नहीं करते, कई जगह छोटे ट्रैक्स पर कंक्रीट से स्लीपर्स फिक्स किए जाते हैं। विपरीत, पत्थर सस्ते हैं। यहाँ पत्थरों का इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि कंक्रीट से हजारों किलोमीटर लंबी पटरियों को पाटना फायदेमंद नहीं होता। "पैसे का खेल बाबू!"