भारत में जब बिजली नही थी तब छत से लटके पंखो से ली जाती थी हवा, इन लोगों को दिनरात करनी पड़ती थी मेहनत
भारतीय इतिहास में पंखे का महत्व बहुत प्राचीन काल से रहा है। बिजली से पहले जब न तो बिजली के पंखे थे और न ही एयर कंडीशनर तब लोगों ने पंखे के रूप में एक सरल लेकिन प्रभावी समाधान विकसित किया था।
यह पंखा 'पुंकाह' के नाम से जाना जाता था, जो छठी शताब्दी ईसापूर्व से इस्तेमाल में आ रहा था। माना जाता है कि इसकी उत्पत्ति मिस्र या अरब देशों में हुई थी और यह 17वीं या 18वीं शताब्दी में भारत में प्रचलित हुआ।
पुंकाह का विस्तार और उपयोग
पुंकाह जिसे छत का पंखा भी कहा जाता है। पुंकाह का उपयोग 1970 के दशक तक भारतीय घरों में बड़े पैमाने पर किया जाता रहा। इस पंखे को छत से लटकाया जाता था और इसे खींचने के लिए रस्सियों का उपयोग होता था। जब इसे खींचा जाता तो यह दोनों ओर दोलन करने लगता और ठंडी हवा फैलाता, जिससे नीचे बैठे लोगों को राहत मिलती थी।
पंखा शब्द की उत्पत्ति
दिलचस्प बात यह है कि 'पंखा' शब्द की उत्पत्ति 'पंख' से हुई है, जो पक्षियों के पंखों से प्रेरित है। पक्षी जब अपने पंख फड़फड़ाते हैं, तो हवा का संचार होता है। इसी तरह से पुंकाह भी हवा को गति देता था। राजाओं और सम्राटों के दरबार में ये पंखे विशेष रूप से प्रचलित थे। जहाँ सेवक लगातार इन्हें खींचकर हवा का प्रवाह करते थे।
बांस और कपड़े का उपयोग
पुंकाह बनाने में बांस की पट्टियों और मोटे कपड़े का उपयोग होता था। यह पंखा आकार में आयताकार होता और इसे छत से लटकाया जाता था। यह पंखा न केवल शाही महलों में बल्कि अंग्रेजों के द्वारा बनाए गए बंगलों और कार्यालयों में भी प्रचलित था।
पंखावालों की भूमिका
इन पंखों को चलाने के लिए पंखावाले कहलाने वाले व्यक्ति नियुक्त किए जाते थे। ये पंखावाले दिन-रात इन पंखों को खींचने का काम करते थे। जिससे गर्मियों में राहत मिलती थी। यह काम उस समय के विलासिता का प्रतीक था और केवल धनी वर्ग ही इसे वहन कर सकता था।
आधुनिकीकरण और परंपरा का ह्रास
19वीं सदी के अंत में जब बिजली का आविष्कार हुआ और बिजली के पंखे बाजार में आए, तो पुंकाह की उपयोगिता में कमी आई। इसके बाद जब सीलिंग फैन और अन्य आधुनिक कूलिंग उपकरण विकसित हुए, तो पुंकाह का प्रयोग लगभग समाप्त हो गया। हालांकि आज भी इन प्राचीन पंखों को कुछ म्यूजियमों में देखा जा सकता है, जो भारतीय इतिहास की झलक प्रदान करते हैं।