समंदर और नदियों की गहराइयों पर इंजीनियर कैसे बनाते है पुल, जाने कैसे होता है ये असम्भव दिखने वाला काम

ज्‍यादातर लोगों ने नदी, नहर और समंदर पर बने बड़े-बड़े पुलों को जरूर देखा होगा. आपने अलग-अलग आकार के पुल भी देखे होंगे. इनको देखकर आपके मन में ये सवाल भी आया होगा कि ये पुल कैसे बनाए गए होंगे?
 

ज्‍यादातर लोगों ने नदी, नहर और समंदर पर बने बड़े-बड़े पुलों को जरूर देखा होगा. आपने अलग-अलग आकार के पुल भी देखे होंगे. इनको देखकर आपके मन में ये सवाल भी आया होगा कि ये पुल कैसे बनाए गए होंगे? इनके पिलर्स को खड़ा करने के लिए पानी को कैसे रोका गया होगा?

पुल को पिलर्स पर कैसे बनाया गया होगा? सारे पुल एक जैसे क्‍यों नहीं होते? इनका डिजाइन अलग क्‍यों होता है. कई बार अपने मन से ही इसके जवाब भी बना लिए होंगे. आज हम आपको इन सवालों का प्रमाणिक जवाब बता रहे हैं.

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सबसे पहले हम आपको बता दें कि गहरी नदी या समुद्र पर पिलर्स के ऊपर पुल बनाने के लिए पानी के बहाव की रफ्तार, गहराई, पानी के नीचे की मिट्टी कौन सी है, पुल का कुल भार और उस पर चलने वाले वाहनों समेत भार का बारीकी से अध्‍ययन किया जाता है.

इसमें कई बार महीनों का वक्‍त लग जाता है. शोध व अध्‍ययन खत्‍म होने के बाद पुल बनाने का काम शुरू किया जाता है. गहरी नदियों समंदर पर तीन तरह के पुल बनाए जाते हैं. इनमें बीम ब्रिज, सस्‍पेंशन ब्रिज और आर्क ब्रिज शामिल होते हैं.

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कैसे बनाए जाते हैं गहरे पानी पर पुल

नदियों और समंदर पर बनाए जाने वाले पुलों का काफी काम दूसरी साइट पर होता है. यहां पिलर्स के ऊपर सेट किए जाने वाले पुलों को तैयार किया जाता है. सिविल इंजीनियरिंग की लैंग्‍वेज में इन्‍हें प्री-कास्‍ट स्‍लैब कहते हैं. पिलर्स पर इन्‍हीं प्री-कास्‍ट स्‍लैब्‍स को जोड़कर पुल बना लिया जाता है.

वहीं, पिलर्स बनाने का काम ऑनसाइट होता है. इसमें सबसे पहले किसी भी मकान या बड़ी इमारत की तरह सबसे पहले नींव डालने का काम किया जाता है. पूरे प्रोजेक्ट के साइज आधार पर नींव का प्लान भी पहले ही बना लिया जाता है.

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कैसे डालते हैं नदियों के पुल की नींव

नदियों और समंदर पर पुल बनाने के दोरान पानी के बीच में रखी जाने वाली नींव का नाम कॉफरडैम होता है. ये मैटल से बना विशाल ड्रम होता है. कॉफरडैम को क्रेन की मदद से पिलर्स की जगह पर पानी के अंदर रखा जाता है. पहले मिट्टी के डैम बनाकर पानी के बहाव को मोडा जाता था या रोक दिया जाता था.

लेकिन, ऐसे डैम के टूटने का खतरा बना रहता था. लिहाजा, अब कॉफरडैम को स्टील की बड़ी शीट्स से बनाया जाता है. जरूरत के मुताबिक इनका आकार गोल या चौकोर कुछ भी रख सकते हैं. इनका आकार पुल की लंबाई, चौड़ाई, पानी की गहराई ओर पानी के बहाव के आधार पर तय किया जाता है.

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कैसे काम करते हैं स्‍टील के कॉफरडैम

कॉफरडैम की वजह से पानी इसके आसपास से बह जाता है. कॉफरडैम में पानी भर जाता है तो पाइप्‍स के जरिये बाहर निकाल लिया जाता है. जब इसके नीचे मिट्टी दिखाई देने लगती है तो इंजीनियर्स इसके अंदर जाकर काम शुरू करते हैं.

फिर इंजीनियर्स सीमेंट, कंक्रीट और बार्स के जरिये मजबूत पिलर्स तैयार करते हैं. इसके बाद दूसरी साइट पर तैयार किए गए पुल के प्री-कास्‍ट स्‍लैब्‍स को लाकर पिलर्स पर सैट कर दिया जाता है.

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पानी ज्‍यादा गहरा तो कैसे बनते हैं पिलर्स

पानी अगर बहुत ज्‍यादा गहरा होता है तो कॉफरडैम काम नहीं आते हैं. इसके लिए गहरे पानी में तल तक जाकर रिसर्च करके कुछ प्‍वाइंट्स तय किए जाते हैं. इसके बाद उन प्‍वाइंटस की मिट्टी की जांच की जाती है कि वो पिलर्स को बनाने लायक ठोस है भी या नहीं. मिट्टी जरूरत के मुताबिक ठीक पाए जाने पर तय प्‍वाइंट्स की जगह पर गहरे गड्ढे किए जाते हैं.

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इसके बाद गड्ढों में पाइप डाले जाते हैं. इन्‍हें समुद्रतल या नदी के तल के ऊपर तक लाया जाता है. इसके बाद इनका पानी निकालकर पाइप्‍स में सीमेंट कंक्रीट और स्‍टील बार्स का जाल डालकर पिलर्स बनाए जाते हैं. पिलर्स बनने के बाद प्री-कास्‍ट स्‍लैब्‍स को लाकर फिक्‍स कर दिया जाता है.